वैसे तो पुरे देश और दुनिया में दिवाली का त्योहार मनाया जा चुका है, लेकिन अब भी भारत में कुछ ऐसी जगह हैं जहां पर दिवाली मनाना बाकी है. हिमाचल में कुछ ऐसी जगह हैं जहां दिवाली का जश्न एक महीने बाद मनाया जाता है. सिरमौर के गिरिपार इलाके, शिमला के कुछ गांव और कुल्लू के निरमंड में बूढ़ी दिवाली मनाई जाती है. इस साल इन जगहों पर दिवाली 4 दिसम्बर को मनाई जाएगी.
इन इलाकों में बूढ़ी दिवाली एक महीने बाद क्यूँ मनाई जाती है?
बूढ़ी दिवाली एक ऐसा खास पर्व है, जो दिवाली के एक महीने बाद मनाया जाता है. यह विशेष रूप से उन क्षेत्रों में मनाया जाता है, जहां सर्दियों में बर्फबारी होती है और तापमान माइनस में गिर जाता है. इन इलाकों में लोग कठिन हालातों में रहते हैं और बर्फबारी के बाद उनका बाकी दुनिया से संपर्क काफी हद तक कट जाता है.
कहा जाता है कि इन पहाड़ी इलाकों में भगवान राम के अयोध्या लौटने की खबर एक महीने बाद पहुंची थी. जब यहां के लोगों ने इस खुशी की खबर सुनी, तो उन्होंने देवदार और चीड़ के पेड़ों की लकड़ियों से मशालें जलाकर रोशनी फैलाई और नाच-गाकर खुशी मनाई. तब से ही इस दिन को ‘बूढ़ी दिवाली’ के रूप में मनाने की परंपरा बन गई.
आज भी, दिवाली के अगले माह की अमावस्या को यह त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है, और गिरिपार क्षेत्र में इसे ‘मशराली’ के नाम से भी जाना जाता है. यह एक उत्सव है, जो न सिर्फ अतीत की याद दिलाता है, बल्कि उस समय की कठिनाइयों में भी उम्मीद और खुशियों का संदेश देता है.
नाच-गाने के साथ मनाया जाता है इस दिन को
यह दिन हिमाचल के लोगों के लिए बहुत ख़ास होता है. इस दिन व पारंपरिक नाच-गाना के साथ जश्न मानते हैं और साथ ही इस दिन लोग एक-दूसरे को सूखे व्यंजन जैसे मूड़ा, शाकुली, चिड़वा और अखरोट बांटकर शुभकामनाएं देते हैं. इस दिन दीयों के साथ हिमाचल के लोग मशालें भी जलाते हैं और अपने बढ़े बुजुर्गो से आशीर्वाद लेते हैं. इस दिन शिरगुल देवकी की गाथाएं गाई जाती हैं और पुरेटुआ का गीत भी जरूरी माना जाता है. हिमाचल के कुछ गावों में यह जश्न एक सप्ताह तक चलता है. बूढ़ी दिवाली के मौके पर इन पंचायतों में पारंपरिक संस्कृति की अद्भुत झलक देखने को मिलती है.